शुक्रवार, 14 अक्तूबर 2011

Education

चौथी दुनिया अख़बार में से लिया गया हे
भारतीय संस्कृति में गुरु को गोविंद यानी भगवान से भी ऊंचा दर्जा प्राप्त है और शिक्षण संस्थानों का महत्व किसी मंदिर से ज़्यादा, लेकिन बाज़ारवाद के दौर में जब शिक्षा के इसी मंदिर को दुकान बनाकर गुरु ख़ुद दुकानदार बन जाए और फिर नैतिकता की बात करे, तो इसे क्या कहेंगे? कुछ ऐसा ही मामला महाराष्ट्र के डी वाई पाटिल ग्रुप और उसके द्वारा चलाए जा रहे विभिन्न निजी शिक्षण संस्थानों का है, जो हज़ारों बच्चों और उनके मां-बाप को सुनहरे भविष्य का सपना दिखाते हैं, जबकि सपनों के इन सौदागरों के दामन पर ख़ुद कई दाग़ हैं और यह सब जानना देश का भविष्य कहलाने वाले बच्चों और उनके अभिभावकों के लिए बेहद ज़रूरी है. चौथी दुनिया के पास ऐसे कई दस्तावेज़ हैं, जिनसे इन शिक्षण संस्थानों और इन्हें चलाने वालों की असलियत का ख़ुलासा होता है.
शिक्षा माफिया. इस देश को नव उदारवाद का एक उपहार. धंधा ऐसा कि हींग लगे न फिटकरी, रंग चोखा आ जाए. और जब भैया हों कोतवाल तो फिर डर कैसा, चाहे जो मर्जी हो, वह कर लो. महाराष्ट्र के शिक्षा जगत में भी सालों से कुछ ऐसा ही हो रहा है. डी वाई पाटिल ग्रुप, एक ऐसा ही नाम है. पेश है, चौथी दुनिया की खास रिपोर्ट.
महाराष्ट्र की राजनीति और शिक्षा जगत में डी वाई पाटिल का नाम किसी पहचान का मोहताज नहीं है. राज्य से बाहर भी उनकी शख्सियत राजनीतिक क्षेत्र में जानी-पहचानी है. उन्हें महाराष्ट्र में शिक्षा महर्षि भी कहा जाता है. वर्तमान में डी वाई पाटिल देश के पूर्वोत्तर राज्य त्रिपुरा के संवैधानिक मुखिया यानी राज्यपाल के सिंहासन पर विराजमान हैं. उनका पुत्र भी राज्य मंत्रिमंडल का सदस्य है. इतने ऊंचे पद की शोभा बढ़ाने वाला शख्स यदि कोई ओछी हरकत करे तो शीघ्र विश्वास नहीं होता है, लेकिन हक़ीक़त यही है कि महाराष्ट्र के इस नामचीन शख्स ने शिक्षा संस्था के नाम पर ऐसी ओछी हरकत की है कि उन्हें शिक्षा महर्षि कहना शिक्षा जगत का अपमान लगता है. इस मामले से उनके शिक्षा महर्षि होने के बजाय शिक्षा माफिया का रूप उजागर हुआ है, जिसने शिक्षा को व्यवसाय बना डाला है. ऐसे व्यक्ति का किसी संवैधानिक पद पर विराजमान होना उस पद की गरिमा को कलंकित करना है, परंतु इस देश में नेताओं के शब्दकोष में नैतिकता जैसे शब्द के लिए जगह नहीं होती.
मोती लाल वोरा ने 27 जून, 2006 को लिखे अपने पत्र में तत्कालीन मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख से आग्रह किया कि डॉ. डी वाई पाटिल एजुकेशनल इंटरप्राइजेज प्राइवेट लिमिटेड ने 2 करोड़ 76 लाख 10 हज़ार 400 रुपये भरे थे, यह रकम उसे शैक्षणिक संस्था होने के कारण सहूलियत देकर वापस कराएं. इस पत्र से यह भी ख़ुलासा हो जाता है कि कांग्रेस द्वारा अपने नेताओं के भ्रष्ट कारनामों पर पर्दा डालकर कैसे उन्हें फायदा पहुंचाने का प्रयास किया जाता है. मोती लाल वोरा के पत्र का असर न होता देखकर पाटिल एजुकेशनल इंटरप्राइजेज ने एक बार फिर झूठ का सहारा लिया.
दरअसल इन शिक्षा महर्षि और राजनीतिज्ञ महोदय के क्रियाकलापों का भंडाफोड़ कुछ दिनों पहले पुणे में शिक्षा संस्था के नाम पर सुविधाएं हासिल करने के लिए राज्य के शासन-प्रशासन की आंख में धूल झोंकने के कारण हुआ और इसकी शुरुआत हुई वर्ष 1991 से. 30 जनवरी, 1991 को धर्मदाय आयुक्त (चैरिटी कमिश्नर) के कार्यालय में डी वाई पाटिल एजुकेशन एकेडमी नाम से एक सार्वजनिक विश्वस्त संस्था का पंजीयन कराया गया. पंजीयन के समय पेश दस्तावेज़ों में बताया गया कि यह संस्था महाराष्ट्र के विभिन्न स्थानों में शैक्षणिक संस्थाएं संचालित करती है और समुचित शिक्षा की व्यवस्था करती है. इसके बाद 30 जून, 1992 को महसूल विभाग एवं वन विभाग की सरकारी ज़मीन महाविद्यालयों के लिए बाज़ार भाव से 50 प्रतिशत कम क़ीमत पर देने का निर्णय राज्य सरकार द्वारा लिया गया. सरकार के इसी निर्णय का फायदा लेने के लिए इस घोटाले को अंजाम देने की योजना उक्त संस्था ने बनाई. संस्था के दस्तावेज़ों की जांच से पता चलता है कि 25 जून, 2002 को डॉ. डी वाई पाटिल एजुकेशनल इंटरप्राइजेज प्राइवेट लिमिटेड का रजिस्ट्रेशन कंपनी एक्ट के तहत किया गया. इसके क़रीब एक साल बाद 11 जून, 2003 को डॉ. डी वाई पाटिल एजुकेशनल इंटरप्राइजेज प्राइवेट लिमिटेड ने 41 लाख 90 हज़ार 191 चौरस फुट ज़मीन गांव मौजे चाहोली बुद्रुक, पुणे में ख़रीदी.

डी वाई पाटिल कौन हैं

महाराष्ट्र का एक बड़ा नाम है डी वाई पाटिल. अभी यह त्रिपुरा के राज्यपाल हैं, राजनीति से इनका पुराना नाता है, लेकिन यह सब एक ओर. जब आप इनका बायोडाटा देखते हैं तो उसमें इनके पेशे के रूप में लिखा है, किसानी और शिक्षाविद्‌. किसानी का तो पता नहीं, लेकिन महाराष्ट्र के शिक्षा जगत में इनका नाम बहुत बड़ा है. नागपुर, पुणे एवं कोल्हापुर से लेकर मुंबई तक फैले कई शिक्षण संस्थान एक ही नाम से चलते हैं. मेडिकल, इंजीनियरिंग, आयुर्वेद, फिजियोथेरेपी, बिजनेस स्कूल, कॉलेज, यूनिवर्सिटी और भी बहुत कुछ. इन सभी संस्थानों के नाम के पहले स़िर्फएक ही नाम जुड़ा हुआ है और वह नाम है डी वाई पाटिल का. आज शिक्षा व्यापार है तो इस व्यापार के सबसे बड़े व्यापारी हैं पाटिल साहब. ज़ाहिर है, इतने बड़े साम्राज्य को खड़ा करने में थोड़ा-बहुत इधर-उधर का खेल भी करना पड़ता है. सो, इस साम्राज्य को बनाने में भी खेल ख़ूब हुआ है.
इसके बाद 30 अक्टूबर, 2004 को नगर विकास विभाग (नाजकधा) ने डॉ. डी वाई पाटिल एजुकेशनल इंटरप्राइजेज द्वारा ख़रीदी गई ज़मीन को धारा 19 (1)(6) के अनुसार सुसंगत बताते हुए संस्था को छूट देने की स़िफारिश की. ग़ौरतलब है कि डॉ. डी वाई पाटिल एजुकेशनल इंटरप्राइजेज एक प्राइवेट लिमिटेड कंपनी है न कि मुंबई सार्वजनिक विश्वस्त अधिनियम 1949 और इसी तरह सोसायटी पंजीयन अधिनियम 1860 के तहत पंजीकृत है.
पिंपरी-चिंचवड महानगर पालिका ने 21 अप्रैल, 2004 को पाटिल एजुकेशनल इंटरप्राइजेज को उक्त ज़मीन पर निर्माण कार्य की मंजूरी दे दी. साथ ही महानगर पालिका ने 19 जून, 2004 को जोन दाख़िला देते समय यह स्पष्ट किया था कि पाटिल एजुकेशनल इंटरप्राइजेज प्राइवेट लिमिटेड द्वारा ख़रीदी गई ज़मीन के प्रत्येक सर्वे नंबर में कम से कम 18 से 30 मीटर रास्ते की व्यवस्था का उल्लेख है. इसके बाद अपर ज़िलाधिकारी एवं सक्षम प्राधिकारी, पुणे नागरी समूह ने 25 अक्टूबर को नगर विकास विभाग को पत्र लिखकर बताया कि मूल कृषक परिवार के नागरी ज़मीन नीति क़ानून अस्तित्व में आने के बाद धारा 6 (1) के अनुसार दो विवरणपत्र दिए गए हैं, जिनमें केस नंबर 1120-पी एवं 1121-पी का उल्लेख किया गया है, मगर इनमें ज़मीन के मूल मालिक म्हस्के, चौधरी एवं गायकवाड़ द्वारा यह नहीं बताया गया है कि उक्त जगह खेती की है. मूल मालिक म्हस्के, चौधरी एवं गायकवाड़ से पाटिल एजुकेशनल इंटरप्राइजेज प्राइवेट लिमिटेड ने ज़मीन ख़रीदी और धारा 6 (1) के अनुसार विवरण पेश किया है. इस पर भी पाटिल एजुकेशनल इंटरप्राइजेज एक शैक्षणिक व प्राइवेट संस्था है, महानगर पालिका ने लेआउट को देखकर मंजूरी दी है. इसमें नाजकधा 19 (1)(6) के प्रावधानों के अनुसार संस्था ने छूट देने का अनुरोध शासन से किया. इस पर नगर विकास विभाग ने लिखित में दिया कि हक़ीक़त में डॉ.
डी वाई पाटिल के पुत्र विधायक सतेज डी पाटिल उ़र्फ बंटी ने एक फरवरी, 2005 को पत्र लिखकर मांग की कि उनकी संस्था पाटिल एजुकेशनल इंटरप्राइजेज प्राइवेट लिमिटेड धर्मदाय आयुक्त कार्यालय में रजिस्टर्ड नहीं है, इस बात को मुख्यमंत्री मान्य करें और ज़मीन ख़रीदी की रकम में छूट दें. इस पर नगर विकास विभाग (नाजकधा) ने अपनी रिपोर्ट में सवाल भी उठाया. फिर भी राजनीतिक दबाव के चलते 23 मई, 2005 को अपर ज़िलाधिकारी शंकर राव सावंत ने शासन से बिना कोई अनुमति लिए उक्त संस्था को सार्वजनिक विश्वस्त संस्था होने की मान्यता देते हुए 13 हेक्टेयर 57 आर ज़मीन को लेकर हुए व्यवहार को नियमित कर दिया.
डी वाई पाटिल एजुकेशनल इंटरप्राइजेज प्राइवेट लिमिटेड कंपनी एक्ट के तहत रजिस्टर्ड है. ऐसे में उसके धर्मदाय आयुक्त के पास पंजीकृत होने का सवाल ही नहीं उठता है. यह भी बताया गया है कि डॉ. डी वाई पाटिल एजुकेशनल इंटरप्राइजेज प्राइवेट लिमिटेड का उक्त तारीख़ यानी 22 जुलाई, 1997 तक कोई अस्तित्व नहीं था, वह 25 जून, 2002 को अस्तित्व में आई. इसके बावजूद 5 जनवरी, 2005 को पाटिल एजुकेशनल इंटरप्राइजेज ने तत्कालीन मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख को पत्र भेजकर अनुरोध किया कि उक्त ज़मीन 22 जुलाई, 1997 को ख़रीदी गई है, जिसका भुगतान चेक द्वारा किया गया है और 11 मार्च, 2000 को उसके नाम पर ज़मीन की गई है. इसलिए कोई दंड न लगाते हुए मदद की जाए. इससे सा़फ पता चलता है कि पाटिल एजुकेशनल इंटरप्राइजेज झूठ पर झूठ बोलकर शासन से लाभ उठाने का लगातार प्रयास करती रही है.
बताया जाता है कि इसके बाद भी इसकी गतिविधियों पर विराम नहीं लगा. डी वाई पाटिल के पुत्र विधायक सतेज डी पाटिल उ़र्फ बंटी ने एक फरवरी, 2005 को पत्र लिखकर मुख्यमंत्री से मांग की कि उनकी संस्था पाटिल एजुकेशनल इंटरप्राइजेज प्राइवेट लिमिटेड को ज़मीन ख़रीदी की रकम में छूट दें. इस पर नगर विकास विभाग (नाजकधा) ने अपनी रिपोर्ट में सवाल उठाया कि डॉ. डी वाई पाटिल एजुकेशनल इंटरप्राइजेज प्राइवेट लिमिटेड के एक शैक्षणिक संस्था होने के बावजूद, नाजकधा अधिनियम के प्रावधान के तहत छूट के लिए संस्था द्वारा शुरुआत में उल्लेख किए गए 1997 के व्यवहार को संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम के तहत सही ठहराया जा सकता है? फिर भी, राजनीतिक दबाव के चलते 23 मई, 2005 को अपर ज़िलाधिकारी शंकर राव सावंत ने शासन से बिना कोई अनुमति लिए उक्त संस्था को सार्वजनिक विश्वस्त संस्था होने की मान्यता देते हुए 13 हेक्टेयर 57 आर ज़मीन को लेकर हुए व्यवहार को नियमित कर दिया. वहीं 23 सितंबर, 2005 को पाटिल एजुकेशनल इंटरप्राइजेज द्वारा 23 हेक्टेयर 74 आर ज़मीन को लेकर किए गए व्यवहार को नाजकधा के प्रावधानों के तहत अनुचित ठहराया गया.
इस संबंध में सामाजिक व आरटीआई कार्यकर्ता रवींद्र एल बरहाते ने बताया कि डी वाई पाटिल एवं उनके विधायक पुत्र सतेज डी पाटिल की जोड़ी ने डी वाई पाटिल एजुकेशनल इंटरप्राइजेज प्राइवेट लिमिटेड के नाम पर जो किया, उसे जायज़ ठहराने के लिए उन्होंने हर तरह के हथकंडे अपनाए. अपनी राजनीतिक ताक़त का भी भरपूर उपयोग किया. उन्होंने कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय कोषाध्यक्ष मोती लाल वोरा से मुख्यमंत्री के नाम पर पत्र लिखवाया. मोती लाल वोरा ने 27 जून, 2006 को लिखे अपने पत्र में तत्कालीन मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख से आग्रह किया कि डॉ. डी वाई पाटिल एजुकेशनल इंटरप्राइजेज प्राइवेट लिमिटेड ने 2 करोड़ 76 लाख 10 हज़ार 400 रुपये भरे थे, यह रकम उसे शैक्षणिक संस्था होने के कारण सहूलियत देकर वापस कराएं. इस पत्र से यह भी ख़ुलासा हो जाता है कि कांग्रेस द्वारा अपने नेताओं के भ्रष्ट कारनामों पर पर्दा डालकर कैसे उन्हें फायदा पहुंचाने का प्रयास किया जाता है. मोती लाल वोरा के पत्र का असर न होता देखकर पाटिल एजुकेशनल इंटरप्राइजेज ने एक बार फिर झूठ का सहारा लिया. संस्था के प्रबंधन ने मुख्यमंत्री को पुन: 13 अक्टूबर, 2006 को पत्र लिखकर कहा कि उसके द्वारा चाहोली बुद्रुक गांव में ख़रीदी गई ज़मीन के पास से कोई रास्ता नहीं है. साथ ही उसने पुराने मामले का हवाला देते हुए छूट देने और 2 करोड़ 75 लाख रुपये वापस करने की मांग की. जबकि पिंपरी-चिंचवड महानगर पालिका ने अपने जोन के दस्तावेज़ों में स्पष्ट कहा है कि प्रत्येक सर्वे नंबर में 18 से 30 मीटर रास्ते के लिए ज़मीन आरक्षित है.
नगर रचना मूल्यांकन महाराष्ट्र राज्य के सह संचालक ने 23 अप्रैल, 2007 को अपनी रिपोर्ट में ज़मीन की क़ीमत 9,06,55,600 रुपये बताई है. वहीं नगर विकास विभाग (नाजकधा) ने अपनी रिपोर्ट में ज़मीन की क़ीमत 14,45,08,094 रुपये बताई है. इससे यह सवाल खड़ा हो गया कि ज़मीन का मुद्रांक शुल्क किस क़ीमत पर तय किया जाए, नगर रचना विभाग द्वारा किए गए मूल्यांकन पर या नगर विकास विभाग (नाजकधा) द्वारा आंकी गई क़ीमत पर. लेकिन ज़मीन की वास्तव में बाज़ार क़ीमत क्या थी, इसका आकलन नहीं किया गया. पाटिल एजुकेशनल इंटरप्राइजेज लगातार सरकार से म्हाडा, सिडको एवं एमआईडीसी की तरह ख़ुद को सहूलियत और छूट देने के साथ पैसा वापस करने का आग्रह करती रही और वह भी शासन-प्रशासन को झूठी जानकारी देकर. इस पूरे गोलमाल में जिन अधिकारियों ने सहयोग किया है, उन पर भी कार्रवाई होनी चाहिए.

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